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न घास ही जमती है ।
जो, कफन की तरह सफद और, े मौत की तरह ठं डी होती है । खेलती, िखल-िखलाती नदी, िजसका रूप धारण कर, ऐसी ऊचाई, ँ
पानी को पत्थर कर दे , िजसका दरस हीन भाव भर दे , अिभनन्दन की अिधकारी है , आरोिहयों क िलये आमंऽण है , े िकन्तु कोई गौरै या,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं , वहाँ नीड़ नहीं बना सकती, ना कोई थका-मांदा बटोही,
अपनों से कटा-बंटा,
पिरवेश से पृथक,
सबसे अलग-थलग,
मजबूरी है ।
अिःतत्व को अथर्,
ऊचे कद क इन्सानों की जरूरत है । ँ े ू इतने ऊचे िक आसमान छ लें, ँ नये नक्षऽों में ूितभा की बीज बो लें, िकन्तु इतने ऊचे भी नहीं, ँ िक पाँव तले दब ही न जमे, ू
जीवन को सुगंध दे ता है ।
मुझे इतनी ऊचाई कभी मत दे ना, ँ गैरों को गले न लगा सक, ूँ इतनी रुखाई कभी मत दे ना।