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हमार े आद शश
शी योग वेदानत सेवा सिमित
संत शी आसारामजी आशम
साबरमती
अमदाबाद -380005
फोनः 079-7505010, 7505011
अनुकम
पासतािवक
अगर तुम ठान लो , तार े गगन क े तोड स कते हो।
अगर त ुम ठान लो , तूफान का म ुख मोड सकत े हो।।
कहने का तातपय श यही है िक जीवन मे ऐसा कोई काय श नहीं िजसे मानव न कर सके।
जीवन मे ऐसी कोई समसया नहीं िजसका समाधान न हो।
जीवन मे संयम, सदाचार, पेम, सिहषणुता, िनभय
श ता, पिवतता, दढ आतमिवशास, सतसािहतय
का पठन, उतम संग और महापुरषो का मागद
श शन
श हो तो हमारे िलए अपना लकय पाप करना
आसान हो जाता है । जीवन को इन सदगुणो से युक बनाने के िलए तथा जीवन के ऊँचे -मे-ऊँचे
धयेय परमातम-पािप के िलए आदशश चिरतो का पठन बडा लाभदायक है होता है ।
पूजय बापू जी के सतसंग पवचनो मे से संकिलत महापुरषो, दे शभिक व साहसी वीर
बालको के पेरणादायक जीवन पसंगो का यह संगह पुसतक के रप मे आपके करकमलो तक
पहुँचाने का बालयत सिमित ने िकया है । आप इसका लाभ ले और इसे दस
ू रो तक पहुँचा कर
पुणयभागी बने।
शी य ोग व े दानत सेवा सिम ित
अमदावाद आ शम।
सफलता की क ुं जी
साधक के जीवन मे, मनुषय मात के जीवन मे अपने लकय की समिृत और ततपरता होनी
ही चािहए। जो काम िजस समय करना चािहए कर ही लेना चािहए। संयम और ततपरता
सफलता की कुंजी है । लापरवाही और संयम का अनादर िवनाश का कारण है । िजस काम को
करे , उसे ईशर का काय श मान कर साधना का अंग बना ले। उस काम मे से ही ईशर की मसती
का आनंद आने लग जायेगा।
दो िकसान थे। दोनो ने अपने-अपने बगीचे मे पौधे लगाये। एक िकसान ने बडी ततपरता
से और खयाल रखकर िसंचाई की, खाद पानी इतयािद िदया। कुछ ही समय मे उसका बगीचा
सुंदर नंदनवन बन गया। दरू-दरू से लोग उसके बगीचे मे आने लगे और खूब कमाई होने लगी।
दस
ू रे िकसान ने भी पौधे तो लगाये थे लेिकन उसने धयान नहीं िदया, लापरवाही की,
अिनयिमत खाद-पानी िदये। लापरवाही की तो उसको पिरणाम वह नहीं िमला। उसका बगीचा
उजाड सा िदखता था।
अब पहले िकसान को तो खूब यश िमलने लगा, लोग उसको सराहने लगे। दस
ू रा िकसान
अपने भागय को कोसने लगा, भगवान को दोषी ठहराने लगा। अरे भाई ! भगवान ने सूय श िक
िकरणे और विृि तो दोनो के िलए बराबर दी थी, दोनो के पास साधन थे, लेिकन दस
ू रे िकसान मे
कमी थी ततपरता व सजगता की, अतः उसे वह पिरणाम नहीं िमल पाया।
पहले िकसान का ततपर व सजग होना ही उसकी सफलता का कारण था और दस
ू रे
िकसान की लापरवाही ही उसकी िवफलता का कारण थी। अब िजसको यश िमल रहा है वह
बुिदमान िकसान कहता है िक 'यह सब भगवान की लीला है ' और दस
ू रा भगवान को दोषी
ठहराता है । पहला िकसान ततपरता व सजगता से काम करता है और भगवान की समिृत रखता
है । ततपरता व सजगता से काम करने वाला वयिक कभी िवफल नहीं होता और कभी िवफल हो
भी जाता है तो िवफलता का कारण खोजता है । िवफलता का कारण ईशर और पकृ ित नहीं है ।
बुिदमान वयिक अपनी बेवकूफी िनकालते है और ततपरता तथा सजगता से कायश करते है ।
एक होता है आलसय और दस
ू रा होता है पमाद। पित जाते-जाते पती को कह गयाः "मै
जा रहा हूँ। फैकटरी मे ये-ये काम है । मैनेजर को बता दे ना।" दो िदन बाद पित आया और पती
से पूछाः "फैकटरी का काम कहाँ तक पहुँचा?"
पती बोलीः "मेरे तो धयान मे ही नहीं रहा।"अनुकम
यह आलसय नहीं है , पमाद है । िकसी ने कुछ काय श कहा िक इतना काय श कर दे ना। बोलेः
"अचछा, होगा तो दे खते है ।" ऐसा कहते हुए काम भटक गया। यह है आलसय।
आल स कबह ुँ न की िजए , आलस अिर स म जािन।
आलस स े िवदा घटे , सुख -समपित की हािन।।
आलसय और पमाद मनुषय की योगयाताओं के शतु है । अपनी योगयता िवकिसत करने के
िलए भी ततपरता से काय श करना चािहए। िजसकी कम समय मे सुनदर, सुचार व अिधक-से-
अिधक काय श करने की कला िवकिसत है , वह आधयाितमक जगत मे जाता है तो वहाँ भी सफल
हो जायगा और लौिकक जगत मे भी। लेिकन समय बरबाद करने वाला, टालमटोल करने वाला
तो वयवहार मे भी िवफल रहता है और परमाथश मे तो सफल हो ही नहीं सकता।
लापरवाह, पलायनवादी लोगो को सुख सुिवधा और भजन का सथान भी िमल जाय लेिकन
यिद काय श करने मे ततपरता नहीं है , ईशर मे पीित नहीं है , जप मे पीित नहीं है तो ऐसे वयिक
को बहाजी भी आकर सुखी करना चाहे तो सुखी नहीं कर सकते। ऐसा वयिक दःुखी ही रहे गा।
कभी-कभी दै वयोग से उसे सुख िमलेगा तो आसक हो जायेगा और दःुख िमलेगा तो बोलेगाः
"कया करे ? जमाना ऐसा है ।" ऐसा करकर वह फिरयाद ही करे गा।
काम-कोध तो मनुषय के वैरी है ही, परं तु लापरवाही, आलसय, पमाद – ये मनुषय की
योगयाओं के वैरी है ।
अद ढं हत ं जानम। ्
'भागवत' मे आता है िक आतमजान अगर अदढ है तो मरते समय रका नहीं करता।
पमाद े हत ं श ु तम।्
पमाद से जो सुना है उसका फल और सुनने का लाभ िबखर जाता है । जब सुनते है तब
ततपरता से सुने। कोई वाकय या शबद छूट न जाय।
संिदगधो ह तो मंतः वयग िचतो हतो जप ः।
मंत मे संदेह हो िक 'मेरा यह मंत सही है िक नहीं? बिढया है िक नहीं?' तुमने जप िकया
और िफर संदेह िकया तो केवल जप के पभाव से थोडा बहुत लाभ तो होगा लेिकन पूणश लाभ तो
िनःसंदेह होकर जप करने वाले को हो ही होगा। जप तो िकया लेिकन वयगिचत होकर बंदर-छाप
जप िकया तो उसका फल कीण हो जाता है । अनयथा एकागता और ततपरतापूवक
श जप से बहुत
लाभ होता है । समथ श रामदास ने ततपरता से जप कर साकार भगवान को पकट कर िदया था।
मीरा ने जप से बहुत ऊँचाई पायी थी। तुलसीदास जी ने जप से ही किवतव शिक िवकिसत की
थी।अनुकम
जपात ् िसिद ः जपात ् िसिद ः जपात ् िस िदन श संशयः।
जब तक लापरवाही है , ततपरता नहीं है तो लाख मंत जपो, कया हो जायेगा? संयम और
ततपरता से छोटे -से-छोटे वयिक को महान बना दे ती है और संयम का तयाग करके िवलािसता
और लापरवाही पतन करा दे ती है । जहाँ िवलास होगा, वहाँ लापरवाही आ जायेगी। पापकमश, बुरी
आदते लापरवाही ले आते है , आपकी योगयताओं को नि कर दे ते है और ततपरता को हडप लेते
है ।
िकसी दे श पर शतुओं ने आकमण की तैयारी की। गुपचरो दारा राजा को समाचार
पहुँचाया गया िक शतुदेश दारा सीमा पर ऐसी-ऐसी तैयािरयाँ हो रही है । राजा ने मुखय सेनापित
के िलए संदेशवाहक दारा पत भेजा। संदेशवाहक की घोडी के पैर की नाल मे से एक कील िनकल
गयी थी। उसने सोचाः 'एक कील ही तो िनकल गयी है , कभी ठु कवा लेगे।' उसने थोडी लापरवाही
की। जब संदेशा लेकर जा रहा था तो उस घोडी के पैर की नाल िनकल पडी। घोडी िगर गयी।
सैिनक मर गया। संदेश न पहुँच पाने के कारण दशुमनो ने आकमण कर िदया और दे श हार
गया।
कील न ठु कवायी.... घोडी िगरी.... सैिनक मरा.... दे श हारा।
एक छोटी सी कील न लगवाने की लापरवाही के कारण पूरा दे श हार गया। अगर उसने
उसी समय ततपर होकर कील लगवायी होती तो ऐसा न होता। अतः जो काम जब करना चािहए,
कर ही लेना चािहए। समय बरबाद नहीं करना चािहए।
आजकल ऑिफसो मे कया हो रहा है ? काम मे टालमटोल। इं तजार करवाते है । वेतन पूरा
चािहए लेिकन काम िबगडता है । दे श की व मानव-जाित की हािन हो रही है । सब एक-दस
ू रे के
िजममे छोडते है । बडी बुरी हालत हो रही है हमारे दे श की जबिक जापान आगे आ रहा है , कयोिक
वहाँ ततपरता है । इसीिलए इतनी तेजी से िवकिसत हो गया।
महाराज ! जो वयवहार मे ततपर नहीं है और अपना कतवशय नहीं पालता, वह अगर साधु
भी बन जायेगा तो कया करे गा? पलायनवादी आदमी जहाँ भी जायेगा, दे श और समाज के िलए
बोझा ही है । जहाँ भी जायेगा, िसर खपायेगा।
भगवान शीकृ षण ने उदव, सातयिक, कृ तवमा श से चचा श करते-करते पूछाः "मै तुमहे पाँच
मूखो, पलायनवािदयो के साथ सवगश मे भेजूँ यह पसंद करोगे िक पाँच बुिदमानो के साथ नरक मे
भेजूँ यह पसंद करोगे?"
उनहोने कहाः "पभु ! आप कैसा पश पूछते है ? पाँच पलायनवादी-लापरवाही अगर सवगश मे
भी जायेगे तो सवग श की वयवसथा ही िबगड जायेगी और अगर पाँच बुिदमान व ततपर वयिक
नरक मे जायेगे तो कायक
श ु शलता और योगयता से नरक का नकशा ही बदल जायेगा, उसको सवगश
बना दे गे।"अनुकम
पलायनवादी, लापरवाही वयिक घर-दक
ु ान, दफतर और आशम, जहाँ भी जायेगा दे र-सवेर
असफल हो जायेगा। कम श के पीछे भागय बनता है , हाथ की रे खाएँ बदल जाती है , पारबध बदल
जाता है । सुिवधा पूरी चािहए लेिकन िजममेदारी नहीं, इससे लापरवाह वयिक खोखला हो जाता है ।
जो ततपरता से काम नहीं करता, उसे कुदरत दब
ु ारा मनुषय-शरीर नहीं दे ती। कई लोग अपने-आप
काम करते है , कुछ लोग ऐसे होते है , िजनसे काम िलया जाता है लेिकन ततपर वयिक को कहना
नहीं पडता। वह सवयं काय श करता है । समझ बदलेगी तब वयिक बदलेगा और वयिक बदलेगा तब
समाज और दे श बदलेगा।
जो मनुषय-जनम मे काम कतराता है , वह पेड पौधा पशु बन जाता। िफर उससे डं डे मार-
मार कर, कुलहाडे मारकर काम िलया जाता है । पकृ ित िदन रात काय श कर रही है , सूय श िदन रात
कायश कर रहा है , हवाएँ िदन रात कायश कर रही है , परमातमा िदन रात चेतना दे रहा है । हम अगर
कायश से भागते िफरते है तो सवयं ही अपने पैर पर कुलहाडा मारते है ।
जो काम, जो बात अपने बस की है , उसे ततपरता से करो। अपने काय श को ईशर की पूजा
समझो। राजवयवसथा मे भी अगर ततपरता नहीं है तो ततपरता िबगड जायेगी। ततपरता से जो
काम अिधकािरयो से लेना है , वह नहीं लेते कयोिक िरशत िमल जाती है और वे लापरवाह हो
जाते है । इस दे श मे 'ऑपरे शन' की जररत है । जो काम नहीं करता उसको तुरंत सजा िमले , तभी
दे श सुधरे गा।
शतु या िवरोधी पक की बात भी यिद दे श व मानवता के िहत की हो तो उसे आदर से
सवीकार करना चािहए और अपने वाले की बात भी यिद दे श के , धमश के अनुकूल नहीं हो तो उसे
नहीं मानना चािहए।
आप लोग जहाँ भी हो, अपने जीवन को संयम और ततपरता से ऊपर उठाओ। परमातमा
हमेशा उननित मे साथ दे ता है । पतन मे परमातमा साथ नहीं दे ता। पतन मे हमारी वासनाएँ,
लापरवाही काम करती है । मुिक के रासते भगवान साथ दे ता है , पकृ ित साथ दे ती है । बंधन के
िलए तो हमारी बेवकूफी, इिनदयो की गुलामी, लालच र हलका संग ही कारणरप होता है । ऊँचा
संग हो तो ईशर भी उतथान मे साथ दे ता है । यिद हम ईशर का समरण करे तो चाहे हमे हजार
फटकार िमले, हजारो तकलीफे आये तो भी कया? हम तो ईशर का संग करे गे, संतो-शासो की
शरण जायेगे, शष
े संग करे गे और संयमी व ततपर होकर अपना काय श करे गे-यही भाव रखना
चािहए।
हम सब िमलकर संकलप करे िक लापरवाही, पलायनवाद को िनकालकर, संयमी और ततपर
होकर अपने को बदलेगे, समाज को बदलेगे और लोक कलयाण हे तु ततपर होकर दे श को उननत
करे गे।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
चार पकार क े बल
जीवन मे सवाग
ा ीण उननित के िलए चार पकार के बल जररी है - शारीिरक बल, मानिसक
बल, बौिदक बल, संगठन बल।
पहला बल है शारीिरक बल। शरीर तनदरसत होना चािहए। मोटा होना शारीिरक बल नहीं
है वरन ् शरीर का सवसथ होना शारीिरक बल है ।
दस
ू रा बल है मानिसक बल। जरा-जरा बात मे कोिधत हो जाना, जरा-जरा बात मे डर
जाना, िचढ जाना – यह कमजोर मन की िनशानी है । जरा-जरा बात मे घबराना नहीं चािहए,
िचिनतत-परे शान नहीं होना चािहए वरन ् अपने मन को मजबूत बनाना चािहए।
तीसरा बल है बुिदबल। शास का जान पाकर अपना, कुल का, समाज का, अपने राष का
तथा पूरी मानव-जाित का कलयाण करने की जो बुिद है , वही बुिदबल है ।
शारीिरक, मानिसक और बौिदक बल तो हो, िकनतु संगठन-बल न हो तो वयिक वयापक
कायश नहीं कर सकता। अतः जीवन मे संगठन बल का होना भी आवशयक है ।
ये चारो पकार के बल कहाँ से आते है ? इन सब बलो का मूल केनद है आतमा। अपना
आतमा-परमातमा िवश के सारे बलो का महा खजाना है । बलवानो का बल, बुिदमानो की बुिद,
तेजिसवयो का तेज, योिगयो का योग-सामथयश सब वहीं से आते है ।
ये चारो बल िजस परमातमा से पाप होते है , उस परमातमा से पितिदन पाथन
श ा करनी
चािहएः
'हे भगवान ! तुझमे सब शिकयाँ है । हम तेरे है , तू हमारा है । तू पाँच साल के धुव के िदल
मे पकट हो सकता है , तू पहाद के आगे पकट हो सकता है .... हे परमेशर ! हे पांडुरं ग ! तू हमारे
िदल मे भी पकट होना....'
इस पकार हदयपूवक
श , पीितपूवक
श व शांतभाव से पाथन
श ा करते-करते पेम और शांित मे
सराबोर होते जाओ। पभुपीित और पभुशांित सामथय श की जननी है । संयम और धैयप
श ूवक
श इिनदयो
को िनयंितत रखकर परमातम-शांित मे अपनी िसथित बढाने वाले को इस आतम-ईशर की संपदा
िमलती जाती है । इस पकार पाथन
श ा करने से तुमहारे भीतर परमातम-शांित पकट होती जायेगी
और परमातम-शांित से आितमक शिकयाँ पकट होती है , जो शारीिरक, मानिसक, बौिदक और
संगठन बल को बडी आसानी से िवकिसत कर सकती है ।
हे िवदािथय
श ो ! तुम भी आसन-पाणायाम आिद के दारा अपने तन को तनदरसत रखने की
कला सीख लो। जप-धयान आिद के दारा मन को मजबूत बनाने की युिक जान लो। संत-
महापुरषो के शीचरणो मे आदरसिहत बैठकर उनकी अमत
ृ वाणी का पान करके तथा शासो का
अधययन कर अपने बौिदक बल को बढाने की कुंजी जान लो और आपस मे संगिठत होकर रहो।
यिद तुमहारे जीवन मे ये चारो बल आ जाये तो िफर तुमहारे िलए कुछ भी असंभव न होगा।
अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
सवधम श िनषा
गीता मे कहा गया है ः
सवध मे िनधन ं श े यः परधमो भयावह ः।
'अपने धमश मे मर जाना भी शय
े सकर है िकंतु दस
ू रे का धमश भयावह है ।' (गीताः 3.35)
िकसी को धमच
श युत करने की चाहे कोई लाख कोिशश कयो न करे , यिद वह बुिदमान होगा
तो न तो िकसी के पलोभन मे आयेगा न ही भय मे, वह तो हर कीमत पर अपने ही धम श मे
अिडग रहे गा।
ईसाइयत वाले गाँव-गाँव जाकर पचार करते है िक 'हमारे धम श मे आ जाओ। हम तुमको
मुिक िदलायेगे।'
एक समझदार वद
ृ सजजन ने उनहे पूछाः
"मुिक कौन दे गा?"
"यीशु भगवान दे गे।"
"यीशु भगवान कौन है ?"
"वे भगवान के बेटे है ।"
तब उस वद
ृ सजजन ने कहाः "हम तो सीधे भगवान का जान पा रहे है , िफर भगवान के
बेटे के पास कयो जाये? भगवान के बेटे मुिक कयो माँगे?"
इतना जान तो भारत का एक गामीण िकसान भी रखता है िक भगवान के बेटे से कया
मुिक माँगनी? िजस बेटे को खीले लगीं और जो खून बहाते-बहाते चला गया, उससे हम मुिक
माँगे? इससे तो जो मुकातमा-परमातमा शीकृ षण िवघन-बाधाओं के बीच भी चैन की बंसी बजा रहे
है , िजनको दे खते ह िचनता गायब हो जाती है और पेम पकट होने लगता है , सीधा उनहीं से मुिक
कयो न ले ले? भगवान के बेटे से हमको मुिक नहीं चािहए। हम तो भगवान से ही मुिक लेगे।
कैसी उतम समझ है !
ॐ
भारत का एक बालक कानवेट सकूल मे अपना नाम खािरज करवाकर भारतीय पदित से
पढानेवाली शाला मे भती हो गया। उस लडके की दिि बडी पैनी थी। उसने दे खा िक शाला के
पधानाचाय श कुता श और धोती पहन कर पाठशाला मे आते है । अतः वह भी अपनी पाठशाला की
पोशाक उतारकर धोती-कुते मे पाठशाला जाने लगा। उसे इस पकार जाते दे खकर िपता ने पूछाः
"बेटा ! तूने यह कया िकया?"
बालकः "िपताजी ! यह हमारी भारतीय वेशभूषा है । दे श तब तक शाद-आबाद नहीं रह
सकता जब तक हम अपनी संसकृ ित का और अपनी वेशभूषा का आदर नहीं करते। िपता जी !
मैने कोई गलती तो नहीं की?"
िपताजीः "बेटा ! गलती तो नहीं की लेिकन ऐसा पहन कैसे िलया?"
बालकः "िपताजी ! हमारे पधानाचाय श यही पोशाक पहनते है । टाई, शटश , कोट, पैनट आिद तो
ठणडे पदे शो की आवशयकता है । हमारा पदे श तो गरम है । हमारी वेशभूषा तो ढीली-ढाली ही होनी
चािहए। यह वेशभूषा सवासथयपद भी है और हमारी संसकृ ित की पहचान भी।"
िपता ने बालक को गले लगाया और कहाः
"बेटा ! तू बडा होन हार है । िकसी के िवचारो से तू दबना नहीं। अपने िवचारो को बुलंद
रखना। बेटा ! तेरी जय-जयकार होगी।"अनुकम
पाठशाला मे पहुँचने पर अनय िवदाथी उसे दे खकर दं ग रह गये िक यह कया ! जब उस
बालक से पूछा गया िक 'तू पाठशाला की पोशाक पहनकर कयो नहीं आया?' तब उसने कहाः
"पाशातय दे शो मे ठणडी रहती है , अतः वहाँ शटश -पैनट आिद की जररत पडती है । ठणडी
हवा शरीर मे घुसकर सदी न कर दे , इसिलए वहाँ के लोग टाई बाँधते है । हमारे दे श मे तो गमी
है । िफर हम उनके पोशाक की नकल कयो करे ? जब हमारी पाठशाला के पधानाचाय श भारतीय
पोशाक पहन सकते है तो भारतीय िवदाथी कयो नहीं पहन सकते?"
उस बालक ने अनय िवदािथय
श ो को भी अपनी संसकृ ित के पित पोतसािहत िकया। उसने
दे खा िक कानवेट सकूल मे पादरी लोग िहनद ू धम श की िननदा करते है और माता-िपता की
अवहे लना करना िसखाते है । हमारे शास कहते है - 'मा तृ देवो भव। िप तृ देवो भव। आचाय श देवो
भव। ' ....और अमेिरका मे कहते है िक 'माँ या बाप डाँट दे तो पुिलस को खबर कर दो।' जो
िशका माता-िपता को भी दं िडत करने की सीख दे , ऐसी िशका हम कयो पाये? हम तो भारतीय
पदित से िशका दे नेवाली पाठशाला मे ही पढे गे।' ऐसा सोचकर उस बालक ने कानवेट सकूल से
अपना नाम कटवाकर भारतीय िशका पदितवाली पाठशाला मे दजश करवाया था।
इतनी छोटी सी उम मे भी अपने राष का, अपने धम श का तथा अपनी संसकृ ित का आदर
करने वाले वे बालक थे सुभाषचंद बोस।
ॐ
एक पादरी िकसी कानवेट सकूल मे िवदािथय
श ो के आगे िहनद ू धम श की िननदा कर रहा था
और अपनी ईसाइयत की डींग हाँक रहा था। इतने मे एक िहममतवान लडका उठ खडा हुआ और
पादरी को भी तौबा पुकारनी पडे , ऐसा सवाल िकया। लडके ने कहाः "पादरी महोदय ! कया आपका
ईसाई धमश िहनद ू धमश की िननदा करना िसखाता है ?"
पादरी िनरतर हो गया, िफर थोडी दे र बाद कूटनीित से बोलाः
"तुमहारा धमश भी तो िननदा करता है ।"अनुकम
उस लडके ने कहाः "हमारे धमग
श नथ मे कहाँ िकसी धमश की िनंदा की गयी है ? गीता मे तो
आता है ः न िह जान ेन सदशं पिव तिम ह िवदत े। 'इस संसार मे जान के समान पिवत करने
वाला िनःसंदेह कुछ भी नहीं है ।'
(गीताः 4.38)
गीता के एक-एक शबद मे मानवमात का उतथान करने का सामथय श छुपा हुआ है । ऐसा
जान दे नेवाली गीता मे कहाँ िकसी के धम श की िननदा की गयी है ? हमारे एक अनय धम श गंथ –
रचियता भगवान वेदवयासजी का शोक भी सुन लोः
धमश यो बा धते न स ध मश ः कुवत मश तत।्
अिवरोधाद यो ध मश ः स ध मश ः सतय िवक म।।
हे िवकम ! जो धम श िकसी दस
ू रे धम श का िवरोध करता है , वह धम श नहीं कुमाग श है । धमश
वही है िजसका िकसी धमश से िवरोध नहीं है ।
पादरी िनरतर हो गया।
वही 10-11 साल का लडका आगे चलकर गीता, रामायण, उपिनषद आिद गंथो का अधययन
करके एक पिसद धुरंधर दाशिशनक बना और भारत के राषपित पद पर शोभायमान हुआ। उसका
नाम था डॉ. सवप
श लली राधाकृ षणन।्
कैसी िहममत और कैसा साहस था भारत के उन ननहे -ननहे बचचो मे ! उनके साहस,
सवािभमान और सवधमश-पीित ने ही आगे चलकर उनहे भारत का पिसद नेता व दाशिशनक बना
िदया।
जो धम श की रका करते है , धम श उनकी रका अवशय करता है । उठो, जागो, भारतवािसयो !
िवधिमय
श ो की कुचालो और षडयंतो के कारण िफर से पराधीन होना पडे इससे पहले ही अपनी
संसकृ ित के गौरव को पहचानो। अपने राष की अिसमता की रका के िलए कमर कसकर तैयार हो
जाओ। अब भी वक है ..... िफर कहीं पछताना न पडे । भगवान और भगवतपाप संतो की कृ पा
तुमहारे साथ है िफर भय िकस बात का? दे र िकस बात की? शाबाश, वीर ! शाबाश...!! अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐ
छतसाल क ी वीरता
बात उस समय की है , जब िदलली के िसंहासन पर औरं गजेब बैठ चुका था।
िवंधयवािसनी दे वी के मंिदर मे मेला लगा हुआ था, जहाँ उनके दशन
श हे तु लोगो की खूब
भीड जमी थी। पननानरे श छतसाल उस वक 13-14 साल के िकशोर थे। छतसाल ने सोचा िक
'जंगल से फूल तोडकर िफर माता के दशन
श के िलए जाऊँ।' उनके साथ हम उम के दस
ू रे राजपूत
बालक भी थे। जब वे जंगल मे फूल तोड रहे थे, उसी समय छः मुसलमान सैिनक घोडे पर सवार
होकर वहाँ आये और उनहोने पूछाः "ऐ लडके ! िवंधयवािसनी का मंिदर कहाँ है ?"
छतसालः "भागयशाली हो, माता का दशन
श करने के िलए जा रहे हो। सीधे... सामने जो
टीला िदख रहा है , वहीं मंिदर है ।"
सैिनकः "हम माता के दशन
श करने नहीं जा रहे , हम तो मंिदर को तोडने के िलए जा रहे
है ।"
छतसाल ने फूलो की डिलया एक दस
ू रे बालक को पकडायी और गरज उठाः "मेरे जीिवत
रहते हुए तुम लोग मेरी माता का मंिदर तोडोगे?"
सैिनकः "लडके तू कया कर लेगा? तेरी छोटी सी उम, छोटी-सी-तलवार.... तू कया कर
सकता है ?"
छतसाल ने एक गहरा शास िलया और जैसे हािथयो के झुड
ं पर िसंह टू ट पडता है , वैसे ही
उन घुडसवारो पर वह टू ट पडा। छतसाल ने ऐसी वीरता िदखाई िक एक को मार िगराया, दस
ू रा
बेहोश हो गया.... लोगो को पता चले उसके पहले ही आधा दजन
श सैिनको को मार भगाया। धमश
की रका के िलए अपनी जान तक की परवाह नहीं की वीर छतसाल ने।
भारत के ऐसे ही वीर सपूतो के िलए िकसी ने कहा है ः
तुम अिगन की भीषण ल पट , जलत े ह ु ए अ ंगार हो।
तु म च ंचला की द ुित च पल , तीखी पखर अिस धार हो।
तु म खौलती जलिन िध -लहर , गितमय पवन उनचास हो।
तुम राष क े इ ितहास हो , तु म का ं ित की आखयाियका।
भैरव पलय क े गान हो , तुम इ नद के द ु दश मय प िव।
तु म िचर अ मर बिल दान हो , तु म कािल का के कोप हो।
पशुप ित रद क े भ ू लास हो , तुम राष क े इ ितहास हो।
ऐसे वीर धमरशकको की िदवय गाथा यही याद िदलाती है िक दि
ु बनो नहीं और दि
ु ो से
डरो भी नहीं। जो आततायी वयिक बहू-बेिटयो की इजजत से खेलता है या दे श के िलए खतरा
पैदा करता है , ऐसे बदमाशो का सामना साहस के साथ करना चािहए। अपनी शिक जगानी
चािहए। यिद तुम धम श और दे श की रका के िलए काय श करते हो तो ईशर भी तुमहारी सहायता
करता है ।
'हिर ॐ.. हिर ॐ... िहममत... साहस... ॐ...ॐ...बल... शिक... हिर ॐ... ॐ... ॐ...' ऐसा
उचचारण करके भी तुम अपनी सोयी हुई शिक को जगा सकते हो। अभी से लग जाओ अपनी
सुषुप शिक को जगाने के कायश मे और पभु को पाने मे।अनुकम
ॐ
महाराणा पताप क ी महानता
बात उन िदनो की है जब भामाशाह की सहायता से राणा पताप पुनः सेना एकत करके
मुगलो के छकके छुडाते हुए डू ं गरपुर, बाँसवाडा आिद सथानो पर अपना अिधकार जमाते जा रहे
थे।
एक िदन राणा पताप असवसथ थे, उनहे तेज जवर था और युद का नेततृव
उनके सुपुत कुँवर अमर िसंह कर रहे थे। उनकी मुठभेड अबदरुशहीम खानखाना
की सेना से हुई। खानखाना और उनकी सेना जान बचाकर भाग खडी हुई। अमर
िसंह ने बचे हुए सैिनको तथा खानखाना पिरवार की मिहलाओं को वहीं कैद
कर िलया। जब यह समाचार महाराणा को िमला तो वे बहुत कुद हुए और बोलेः
"िकसी सी पर राजप ूत हा थ उठाय े , यह मै सहन नही ं कर सकता। यह हमार े
िल ए डूब मरन े की बात ह ै। "
वे तेज जवर मे ही युद-भूिम के उस सथान पर पहुँच गये जहाँ खानखाना पिरवार की
मिहलाएँ कैद थीं।
राणा पताप खानखाना के बेगम से िवनीत सवर मे बोलेः
"खानखाना मेरे बडे भाई है । उनके िरशते से आप मेरी भाभी है । यदिप यह मसतक आज
तक िकसी वयिक के सामने नहीं झुका, परं तु मेरे पुत अमर िसंह ने आप लोगो को जो कैद कर
िलया और उसके इस वयवहार से आपको जो कि हुआ उसके िलए मै माफी चाहता हूँ और आप
लोगो को ससममान मुगल छावनी मे पहुँचाने का वचन दे ता हूँ।"
उधर हताश-िनराश खानखाना जब अकबर के पास पहुँचा तो अकबर ने वयंगयभरी वाणी
से उसका सवागत िकयाः
"जनानखाने की युद-भूिम मे छोडकर तुम लोग जान बचाकर यहाँ तक कुशलता से पहुँच
गये?"
खानखाना मसतक नीचा करके बोलेः "जहाँपनाह ! आप चाहे िजतना शिमन
श दा कर ले, परं तु
राणा पताप के रहते वहाँ मिहलाओं को कोई खतरा नहीं है ।" तब तक खानखाना पिरवार की
मिहलाएँ कुशलतापूवक
श वहाँ पहुँच गयीं।
यह दशय दे ख अकबर गंभीर सवर मे खानखाना से कहने लगाः
"राणा पताप ने तुमहार े पिरवार की ब ेगमो को यो सस ममान पह ुँचाकर त ुमहारी
ही नह ीं , पूरे मुग ल खानदा न की इजजत को सममान िदया है। राण ा पताप की
महानता के आगे मेरा मसतक झुका जा रहा है। राण ा पताप जैस े उदार योद ा को
कोई ग ु लाम नही ं बना सकता। " अनुकम
ॐ
साह िसक लडका
एक लडका काशी मे हिरशनद हाई सकूल मे पढता था। उसका गाँव काशी से 8 मील दरू
था। वह रोजाना वहाँ से पैदल चलकर आता, बीच मे जो गंगा नदी बहती है उसे पार करता और
िफर िवदालय पहुँचता।
उस जमाने मे गंगा पार करने के िलए नाववाले को दो पैसे दे ने पडते थे।
दो पैसे आने के और दो पैसे जाने के, कुल चार पैसे यानी पुराना एक आना।
महीने मे करीब दो रपये हुए। जब सोने के एक तोले का भाव सौ रपयो
से भी कम था तब के दो रपये। आज के तो पाँच-पचचीस रपये हो जाये।
उस लडके ने अपने माँ-बाप पर अितिरक बोझा न पडे इसिलए एक भी
पैसे की माँग नहीं की। उसने तैरना सीख िलया। गमी हो, बािरश हो िक ठणडी हो गंगा पार करके
हाई सकूल मे जाना उसका कम हो गया। ऐसा करते-करते िकतने ही महीने गुजर गये।
एक बार पौष मास की ठणडी मे वह लडका सुबह की सकूल भरने के िलए गंगा मे कूदा।
तैरते-तैरते मझधार मे आया। एक नाव मे कुछ याती नदी पार कर रहे थे। उनहोने दे खा िक छोटा
सा लडका अभी डू ब मरे गा। वे नाव को उसके पास ले गये और हाथ पकडकर उसे नाव मे खींच
िलया। लडके के मुख पर घबराहट या िचनता का कोई िचनह नहीं था। सब लोग दं ग रह गये िक
इतना छोटा है और इतना साहसी ! वे बोलेः
"तू अभी डू ब मरता तो? ऐसा साहस नहीं करना चािहए।"
तब लडका बोलाः "साहस तो होना ही चािहए ही। अगर अभी से साहस नहीं जुटाया तो
जीवन मे बडे -बडे कायश कैसे कर पायेगे?"
लोगो ने पूछाः "इस समय तैरने कयो आये? दोपहर को नहाने आते?"
लडका बोलता है ः "मै नदी मे नहाने के िलए नहीं आया हूँ, मै तो सकूल जा रहा हूँ।"
"िफर नाव मे बैठकर जाते?"
"रोज के चार पैसे आने-जाने के लगते है । मेरे गरीब माँ-बाप पर मुझे बोझ नहीं बनना
है । मुझे तो अपने पैरो पर खडे होना है । मेरा खचश बढे गा तो मेरे माँ-बाप की िचनता बढे गी, उनहे
घर चलाना मुिशकल हो जायेगा।"
लोग उस लडके को आदर से दे खते ही रह गये। वही साहसी लडका आगे चलकर भारत
का पधानमंती बना। वह लडका था लाल बहादरु शासी। शासी जी उस पद पर भी सचचाई,
साहस, सरलता, ईमानदारी, सादगी, दे शपेम आिद सदगुण और सदाचार के मूितम
श नत सवरप थे।
ऐसे महामानव भले िफर थोडे समय ही राजय करे पर एक अनोखा पभाव छोड जाते है
जनमानस पर।अनुकम
ॐ
चनदश ेखर आ जाद क ी द ढिनषा
महान दे शभक, कांितकारी, वीर चनदशेखर आजाद बडे ही दढपितज थे। उनके गले मे
यजोपवीत, जेब मे गीता और साथ मे िपसतौल रहा करती थी। वे ईशरपरायण, बहादरु, संयमी और
सदाचारी थे।
एक बार वे अपने एक िमत के घर ठहरे हुए थे। उनकी नवयुवती कनया ने
उनहे कामजाल मे फँसाना चाहा, आजाद ने डाँटकर कहाः 'इस बार तुमहे कमा
करता हूँ, भिवषय मे ऐसा हुआ तो गोली से उडा दँग
ू ा।' यह बात उनहोने उसके
िपता को भी बता दी और उनके यहाँ ठहरना तक बंद कर िदया।
िजन िदनो आजाद भूिमगत होकर मातभ
ृ िू म की सवाधीनता के िलए िबिटश
हुकूमत से संघषश कर रहे थे, उन िदनो उनकी माँ जगरानी दे वी अतयनत िवपननावसथा मे रह रही
थीं। तन ढँ कने को एक मोटी धोती तथा पेट भरने को दो रोटी व नमक भी उनहे उपलबध नहीं
हो पा रहा था। अडोस-पडोस के लोग भी उनकी मदद नहीं करते थे। उनहे भय था िक अंगेज
पुिलस आजाद को सहायता दे ने के संदेह मे उनकी ताडना करे गी।
माँ की इस किपूण श िसथित का समाचार जब कांितकािरयो को िमला तो वे पीडा से
ितलिमला उठे । एक कांितकारी ने, िजसके पास संगिहत धन रखा होता था, कुछ रपये चनदशेखर
की माँ को भेज िदये। रपये भेजने का समाचार जब आजाद को िमला तो वे कोिधत हो गये और
उस कांितकारी की ओर िपसतौल तानकर बोलेः 'गदार ! यह तूने कया िकया? यह पैसा मेरा नहीं
है , राष का है । संगिहत धन का इस पकार अपवयय कर तूने हमारी दे शभिक को लांिछत िकया
है । चनदशेखर इसमे से एक पैसा भी वयिकगत कायो मे नहीं लगा सकता।' आजाद की यह
अलौिकक पमािणकता दे खकर वह कांितकारी दं ग रह गया। अपराधी की भाँित वह नतमसतक
होकर खडा रहा। कणभर बाद आजाद िपसतौल बगल मे डालते हुए बोलेः
'आज तो छोड िदया, परं तु भिवषय मे ऐसी भूल की पुनराविृत नहीं होनी चािहए।'
दे श के िलए अपना सवस
श व नयोछावर करने वाले चनदशेखर आजाद जैसे संयमी, सदाचारी
दे शभको के पिवत बिलदान से ही भारत अंगेजी शासन की दासता से मुक हो पाया है ।अनुकम
ॐ
दाँतो मे ितनका दबाओ, गले मे कुलहाडी डालो और अपनी िसयो सिहत कुटु िमबयो को
साथ लेकर, आदरपूवक
श जानकी जी को आगे करके इस पकार सब भय छोडकर चलो और हे
शरणागत का पालन करने वाले रघुवंशिशरोमिण शीरामजी ! मेरी रका कीिजए.... रका कीिजए...'
इस पकार आतश पाथन
श ा करो। आतश पुकार सुनते ही पभु तुमको िनभय
श कर दे गे।"
अंगद को इस पकार कहते हुए दे खकर रावण हँ सने लगा और बोलाः
"कया राम की सेना मे ऐसे छोटे -छोटे बंदर ही भरे है ? हाऽऽऽ हाऽऽऽ हाऽऽऽ.... यह राम का
मंती है ? एक बंदर आया था हनुमान और यह वानर का बचचा अंगद !"
अंगदः "रावण ! मनुषय की परख अकल होिशयारी से होती है , न िक उम से।"
िफर अंगद को हुआ िक 'यह शठ है , ऐसे नहीं मानेगा। इसे मेरे पभु शीराम का पभाव
िदखाऊँ।' अंगद ने रावण की सभा मे पण करके दढता के साथ अपना पैर जमीन पर जमा िदया
और कहाः
"अरे मूखश ! यिद तुममे से कोई मेरा पैर हटा सके तो शीरामजी जानकी माँ को िलए िबना
ही लौट जायेगे।"
कैसी दढता थी भारत के उस युवक अंगद मे ! उसमे िकतना साहस और शौय श था िक
रावण से बडे -बडे िदगपाल तक डरते थे उसी की सभा मे उसी को ललकार िदया !
मेघनाद आिद अनेको बलवान योदाओं ने अपने पूरे बल से पयास िकये िकंतु कोई भी
अंगद के पैर को हटा तो कया, टस-से-मस तक न कर सका। अंगद के बल के आगे सब हार
गये। तब अंगद के ललकारने पर रावण सवयं उठा। जब वह अंगद का पैर पकडने लगा तो अंगद
ने कहाः
"मेरे पैर कया पकडते हो रावण ! जाकर शीरामजी के पैर पकडो तो तुमहारा कलयाण हो
जायेगा।"
यह सुनकर रावण बडा लिजजत हो उठा। वह िसर नीचा करके िसंहासन पर बैठ गया।
कैसा बुिदमान था अंगद ! िफर रावण ने कूटनीित खेली और बोलाः
"अंगद ! तेरे िपता बािल मेरे िमत थे। उनको राम ने मार िदया और तू राम के पक मे
रहकर मेरे िवरद लडने को तैयार है ? अंगद ! तू मेरी सेना मे आ जा।"अनुकम
अंगद वीर, साहसी, बुिदमान तो था ही, साथ ही साथ धमप
श रायण भी था। वह बोलाः
"रावण ! तुम अधमश पर तुले हो। यिद मेरे िपता भी ऐसे अधम श पर तुले होते तो उस वक
भी मै अपने िपता को सीख दे ता और उनको िवरद शीरामजी के पक मे खडा हो जाता। जहाँ
धम श और सचचाई होती वहीं जय होती है । रावण ! तुमहारी यह कूटनीित मुझ पर नहीं चलेगी।
अभी भी सुधर जाओ।"
कैसी बुिदमानी की बात की अंगद ने ! इतनी छोटी उम मे ही मंतीपद को इतनी कुशलता
से िनभाया िक शतुओं के छकके छूट गये। साहस, शौयश, बल, पराकम, तेज-ओज से संपनन वह
भारत का युवा अंगद केवल वीर ही नहीं, िवदान भी था, धमश-नीितपरायण भी था और साथ ही
पभुभिक भी उसमे कूट-कूटकर भरी हुई थी।
हे भारत के नौजवानो ! याद करो उस अंगद की वीरता को िक िजसने रावण जैसे राकस
को भी सोचने पर मजबूर कर िदया। धम श तथा नीित पर चलकर अपने पभु की सेवा मे अपना
तन-मन अपण
श करने वाला वह अंगद इसी भूिम पर पैदा हुआ था। तुम भी उसी भारतभूिम की
संताने हो, जहाँ अंगद जैसे वीर रत पैदा हुए। भारत की आज की युवा पीढी चाहे तो बहुत कुछ
सीख सकती है अंगद के चिरत से।अनुकम
ॐ
काली की वीरता
राजसथान के डू ं गरपुर िजले के रासतपाल गाँव की 19 जून, 1947 की घटना है ः
उस गाँव की 10 वषीय कनया काली अपने खेत से चारा िसर पर उठाकर आ रही थी।
हाथ मे हँ िसया था। उसने दे खा िक 'टक के पीछे हमारे सकूल के मासटर साहब बँधे है और
घसीटे जा रहे है ।'
काली का शौयश उभरा, वह टक के आगे जा खडी हुई और बोलीः
"मेरे मासटर को छोड दो।"
िसपाहीः "ऐ छोकरी ! रासते से हट जा।"
"नहीं हटू ँ गी। मेरे मासटर साहब को टक के पीछे बाँधकर कयो घसीट रहे हो?"
"मूखश लडकी ! गोली चला दँग
ू ा।"
िसपािहयो ने बंदक
ू सामने रखी। िफर भी उस बहादरु लडकी ने उनकी परवाह न की और
मासटर को िजस रससी से टक से बाँधा गया था उसको हँ िसये काट डाला !
लेिकन िनदश यी िसपािहयो ने, अंगेजो के गुलामो ने धडाधड गोिलयाँ बरसायीं। काली नाम
की उस लडकी का शरीर तो मर गया लेिकन उसकी शूरता अभी भी याद की जाती है ।
काली के मासटर का नाम था सेगाभाई। उसे कयो घसीटा जा रहा था? कयोिक वह कहता
था िक 'इन वनवािसयो की पढाई बंद मत करो और इनहे जबरदसती अपने धम श से चयुत मत
करो।'
अंगेजो ने दे खा िक 'यह सेगाभाई हमारा िवरोध करता है सबको हमसे लोहा लेना िसखाता
है तो उसको टक से बाँधकर घसीटकर मरवा दो।'
वे दि
ु लोग गाँव के इस मासटर की इस ढँ ग से मतृयु करवाना चाहते थे िक पूरे डू ं गरपुर
िजले मे दहशत फैल जाय तािक कोई भी अंगेजो के िवरद आवाज न उठाये। लेिकन एक 10 वषश
की कनया ने ऐसी शूरता िदखाई िक सब दे खते रह गये !
कैसा शौयश ! कैसी दे शभिक और कैसी धमिशनषा थी उस 10 वषीय कनया की। बालको ! तुम
छोटे नहीं हो।
हम बाल क ह ै तो कया ह ु आ , उतसाही ह ै हम वीर ह ै।
हम ननह े -मुनन े ब चचे ही , इस द ेश की त कदीर है।।
तुम भी ऐसे बनो िक भारत िफर से िवशगुर पद पर आसीन हो जाय। आप अपने
जीवनकाल मे ही िफर से भारत को िवशगुर पद पर आसीन दे खो... हिरॐ....ॐ....ॐ.... अनुकम
ॐ
आतमजान की िदवयता
भारत की िवदष
ू ी कनया सुलभा एक बार राजा जनक के दरबार मे पहुँची। यह बात उस
समय की है जब कनयाएँ राजदरबार मे नहीं जाया करती थीं। वह साहसी कनया सुलभा जब
साििवक वेषभूषा मे राजा जनक के दरबार मे पहुँची तब उसकी पिवत, सौमय मूित श दे खकर राजा
जनक का हदय शदा से अिभभूत हो उठा।
जनक ने पूछाः "दे िव ! तुम यहाँ कैसे आयी हो? तुमहारा पिरचय कया है ?"
कनयाः "राजन ! मै आपकी परीका लेने के िलए आयी हूँ।"
कैसा रहा होगा भारत की उस कनया मे िदवय आधयाितमक ओज ! जहाँ पंिडत लोग
खुशामद करते थे, जहाँ तपसवी लोग भी जनक की जय-जयकार िकये िबना नहीं रहते थे और
भाट-चारण िदन रात िजनके गुणगान गाने मे अपने को भागयशाली मानते थे वहाँ भारत की वह
16-17 वषश की कनया कहती है ः "राजन ! मै तुमहारी परीका लेने आयी हूँ।"
सुलभा की बात सुनकर राजा जनक पसनन हुए िक मेरे दे श मे ऐसी भी बािलकाएँ है ! वे
बोलेः "मेरी परीका?"
कनयाः "हाँ, राजन ् ! आपकी परीका। आप मेरा पिरचय जानना चाहते है तो सुिनये। मेरा
नाम सुलभा है । मै 16 वषश की हुई तो मेरे माता-िपता मेरे िववाह के िवषय मे कुछ िवचार-िवमशश
करने लगे। मैने िखडकी से उनकी सारी बाते सुन लीं। मैने उनसे कहाः 'संसार मे तो जब पवेश
होगा तब होगा, पहले जीवातमा को अपनी आतमशिक जगानी चािहए। आप एक बार मुझे सतसंग
मे ले गये थे, िजसमे मैने सुना था िक पािणमात के हदय मे जो परमातमा िछपा है , उस
परमातमा की िजतनी शिकयाँ मनुषय जगा सके उतना ही वह महान बनता है । अतः मुझे पहले
महान बनने की दीका-िशका िदलाने की कृ पा करे ।'
पहले तो मेरे िपता िहचिकचाने लगे िकंतु मेरी माँ ने उनहे पोतसािहत िकया। मेरे माता-
िपता ने िजन गुरदे व से दीका ली थी उनसे मुझे भी दीका िदलवा दी। मेरे गुरदे व ने मुझे
पाणायाम-धयानािद की िविध िसखायी। मैने डे ढ सपाह तक उनकी बतायी िविध के अनुसार
साधना की तो मेरी सुषुप शिक जागत होने लगी। कभी मै धयान मे हँ सती, कभी रदन करती....
इस पकार िविभनन अनुभवो से गुजरते-गुजरते और आतमशिक का एहसास करते-करते 6 महीनो
मे मेरी साधना मे चार चाँद लग गये। िफर गुरदे व ने मुझे तिवजान का उपदे श िदयाः 'बुिद की
िनणय
श शिक का, मन की पसननता का और शरीर की रोगपितकारक शिक का िवकास जहाँ से
होता है उस अपने सवरप को जान।'
मन त ू जयोितसवरप अपना म ूल िपछान।
पूजय गुरदे व ने तिवजान की वषाश कर दी। अब मै आपसे यह पूछना चाहती हूँ िक मै तो
एकानत मे रोज एक-दो घणटे जप-धयान करती थी िजससे मेरी समरणशिक, बुिदशिक, अनुमान
शिक, कमा शिक, शौय श आिद का िवकास हुआ और बाद मे जहाँ से सारी शिकयाँ बढती है उस
परबह परमातमा का, सोऽहं सवरप का जान गुर से िमला तब मुझे साकातकार के बाद आपको
इन भँवर डु लानेवाली ललनाओं और छत की कया जररत है ? इस राज-वैभव और महलो की कया
जररत है ? िजसके हदय मे आतमसुख पैदा हो गया उसे संसार का सुख तो तुचछ लगता है । िफर
भी हे राजन ् ! आप संसार के नशर सुख मे कयो िटके है ?"
सुलभा के पशो को सुनकर जनक बोलेः "सुनो, सुलभा ! िपछले जनम मे मै व मेरे कुछ
साथी हमारे गुरदे व के आशम मे जाते थे। गुरदे व हमे पाणायाम आिद साधना की िविध बताते
थे। एक बार गुरदे व कहीं घूमने िनकल गये। हम सब छात िमलकर नदी मे नहा रहे थे और
हममे से जो सबसे छोटा िवदाथी था उसकी मजाक उडा रहे थे िक 'बडा जोगी आया है .... तेरे को
ईशर नहीं िमलेगे, हम िमलेगे.....' और मैने तो उदणडता करके उस छोटे -से िवदाथी के िसर पर
टकोरा मार िदया। हमारे वयवहार से दःुखी होकर वह रोने लगा। इतने मे गुरदे व पधारे और सारी
बात जानकर नाराज होकर मुझसे बोलेः 'जब तक इस ननहे िवदाथी को परमातमा का अनुभव
नहीं होगा तब तक तुमको भी नहीं होगा और जब होगा तब इसी की कृ पा से होगा।'
समय पाकर हमारा वह जीवन पूरा हुआ लेिकन गुरदार पर रहे थे, साधना आिद की थी
अतः इस जनम मे मै राजा बना और वह ननहा सा िवदाथी अिावक मुिन बना। अिावक मुिन
को माता के गभश मे ही परमातमा का साकातकार हो गया।
उनहीं अिावक मुिन के शीचरणो मे मैने परमातम-जान की पाथन
श ा की, तब वे बोलेः
'िशषय सतपात हो और सदगुर समथ श हो तो घोडे की रकाब मे पैर डालते -डालते भी
परमातम-तिव का साकातकार हो सकता है । डाल रकाब मे पैर।'
मैने रकाब मे पैर डाला तो वे बोलेः
'तुझे ईशर के दशन
श करने है । लेिकन तू मुझे कया मानता है ?'
'आपको मै गुर नहीं, सदगुर मानता हूँ।'
'अचछा, सदगुर मानता है , तो ला दिकणा।'
'गुरजी ! तन, मन, धन सब आपका है ।'
मै जैसे ही पैर उठाने गया तो वे बोल उठे ः 'जनक ! तन मेरा हो गया तो मेरी आजा के
िबना कयो पैर उठा रहा है ?'
मै सोचने लगा तो वे बोलेः 'मन भी मेरा हो गया, इसका उपयोग मत कर।'
मेरा मन कण भर के िलए शांत हो गया। िफर बुिद से िवचारने लगा तो गुरदे व बोलेः
'छोड अब सोचना।'
गुरदे व ने थोडी दे र शांत होकर कृ पा बरसायी और मुझे परमातमा-तिव का साकातकार हो
गया। अब मुझे यह संसार सवपन जैसा लगता है और चैतनयसवरप आतमा अपना लगता है ।
दःुख के समय मुझे दःुख की चोट नहीं लगता और सुख के समय मुझे सुख का आकषण
श नहीं
होता। मै मुकातमा होकर राजय करता हूँ।
सुलभा ! तुमहारा दस
ू रा पश था िक 'जब परमातमा का आनंद आ रहा है तो िफर आप
राजगदी का मजा कयो ले रहे है '
मेरे गुरदे व ने कहा थाः 'अचछे वयिक अगर राजगदी से हट जायेगे तो सवाथी, लोलुप और
एक-दस
ू रे की टाँग खींचनेवाले लोगो का पभाव बढ जायेगा। बहजानी अगर राजय करे गे तो पजा
मे भी बहजान का पचार-पसार होगा।
सुलभा ! ये चँवर और छत राजपद का है । इसिलए इस राज-पिरधान का उपयोग करके मै
अचछी तरह से राजय करता हूँ और राज-काज से िनपटकर रोज आतमधयान करता हूँ।"
सुलभा के एक-एक पश का संतोषपद जवाब राजा जनक ने िदया, िजससे सुलभा का हदय
पसनन हुआ और राजा जनक भी सुलभा के पशो से पसनन होकर बोलेः "सुलभा ! मुझे तुमहारा
पूजन करने दो।"
साधुओं का नाम लो तो शुकदे व जी का पहला नंबर आता है । उन शुकदे वजी के गुर राजा
जनक, जीवनमुक िमिथलानरे श, 17 वषीय सुलभा का पूजन करते है । कैसा िदवय आदर है
आतमजान का !
जो मनुषय आतमजान का आदर करता है वह आधयाितमक जगत मे तो उननत होता ही
है लेिकन भौितक जगत की वसतुएँ भी उसके पीछे -पीछे दौडी चली आती है । ऐसा िदवय है
आतमजान ! अनुकम
ॐ
पितभावना बालक रम ण
महाराष मे एक लडका था। उसकी माँ बडी कुशल और सतसंगी थी। वह उसे थोडा-बहुत
धयान िसखाती थी। अतः जब लडका 14-15 साल का हुआ तब तक उसकी बुिद िवलकण बन
चुकी थी।
चार डकैत थे। उनहोने कहीं डाका डाला तो उनहे हीरे -जवाहरात से भरी अटै ची िमल गयी।
उसे सुरिकत रखने के िलए चारो एक ईमानदार बुिढया के पास गये। अटै ची दे ते हुए बुिढया से
बोलेः
"माताजी ! हम चारो िमत वयापार धंधा करने िनकले है । हमारे पास कुछ पूँजी है । इस
जोिखम को कहाँ साथ लेकर घूमे? यहाँ हमारी कोई जान-पहचान भी नहीं है । आप इसे रखो और
जब हम चारो िमलकर एक साथ लेने के िलए आये तब लौटा दे ना।"
बुिढया ने कहाः "ठीक हो।"
अटै ची दे कर चारो रवाना हुए, आगे गये तो एक चरवाहा दध
ू लेकर बेचने जा रहा था। इन
लोगो को दध
ू पीने की इचछा हुई। पास मे कोई बतन
श तो था नहीं। तीन डकैतो ने अपने चौथे
साथी को कहाः "जाओ, वह बुिढया का घर िदख रहा है , वहाँ से बतन
श ले आओ। हम लोग यहाँ
इं तजार करते है ।"
डकैत बतन
श लेने चला गया। रासते मे उसकी नीयत िबगड गयी। वह बुिढया के पास
आकर बोलाः "माताजी ! हम लोगो ने िवचार बदल िदया है । हम यहाँ नहीं रकेगे, आज ही दस
ू रे
नगर मे चले जायेगे। अतः हमारी अटै ची लौटा दीिजए। मेरे तीन दोसत सामने खडे है । उनहोने
मुझे अटै ची लेने भेजा है ।"
बुिढया ने बाहर आकर उसके सािथयो की तरफ दे खा तो तीनो दरू खडे है । बुिढया ने
बाहर आकर उसके सािथयो की तरफ दे खा तो तीनो दरू खडे है । बुिढया ने बात पककी करने के
िलए उनको इशारे से पूछाः
"इसको दे दँ ू?"
डकैतो को लगा िक 'माई पूछ रही है – इसको बतन
श दँ ू?' तीनो ने दरू से ही कह िदयाः
"हाँ, हाँ, दे दो।"
बुिढया घर मे गयी। िपटारे से अटै ची िनकालकर उसे दे दी। वह चौथा डकैत अटै ची लेकर
दस
ू रे रासते से पलायन कर गया।
तीनो साथी काफी इं तजार करने के बाद बुिढया के पास पहुँचे। उनहे पता चला िक चौथा
साथी अटै ची ले भागा है । अब तो वे बुिढया पर ही िबगडे ः "तुमने एक आदमी को अटै ची दी ही
कयो? जबिक शतश तो चारो एक साथ िमलकर आये तभी दे ने की थी।"
उलझी बात राजदरबार मे पहुँची। डकैतो ने पूरी हकीकत राजा को बतायी। राजा ने भाई
से पूछाः
"कयो, जी ! इन लोगो ने बकसा िदया था?'' अनुकम
"जी महाराज !"
ऐसा कहा था िक जब चारो िमलकर आये तब लौटाना?"
"जी महाराज।"
राजा ने आदे श िदयाः "तुमने एक ही आदमी को अटै ची दे दी, अब इन तीनो को भी
अपना-अपना िहससा िमलना चािहए। तेरी माल-िमिलकयत, जमीन-जायदाद जो कुछ भी हो उसे
बेचकर तुमहे इन लोगो का िहससा चुकाना पडे गा। यह हमारा फरमान है ।"
बुिढया रोने लगी। वह वधवा थी और घर मे छोटे बचचे थे। कमानेवाला कोई था नहीं।
समपित नीलाम हो जायेगी तो गुजारा कैसे होगा?। वह अपने भागय को कोसती हुई, रोती-पीटती
रासते से गुजर रही थी। जब 15 साल से रमण ने उसे दे खा तब वह पूछने लगाः
"माताजी ! कया हुआ? कयो रो रही हो?"
बुिढया ने सारा िकससा कह सुनाया। आिखर मे बोलीः
"कया करँ , बेटे? मेरी तकदीर ही फूटी है , वरना उनकी अटै ची लेती ही कयो?"
रमण ने कहाः "माताजी ! आपकी तकदीर का कोई कसूर नहीं है , कसूर तो राजा की
खोपडी का है ।"
संयोगवश राजा गुपवेश मे वहीं से गुजर रहा था। उसने सुन िलया और पास आकर पूछने
लगाः "कया बात है ?"
"बात यह है िक नगर के राजा को नयाय करना नहीं आता। इस माताजी के मामले मे
उनहोने गलत िनणय
श िदया है ।" रमण िनभय
श ता से बोल गया।
राजाः "अगर तू नयायधीश होता तो कैसा नयाय दे ता?" िकशोर रमण की बात सुनकर
राजा की उतसुकता बढ रही थी।
रमणः "राजा को नयाय करवाने की गरज होगी तो मुझे दरबार मे बुलायेगे। िफर मै
नयाय दँग
ू ा।"
दस
ू रे िदन राजा ने रमण को राजदरबार मे बुलवाया। पूरी सभा लोगो से खचाखच भरी
थी। वह बुिढया माई और तीनो िमत भी बुलाये गये थे। राजा ने पूरा मामला रमण को सौप
िदया।
रमण ने बुजुग श नयायधीश की अदा से मुकदमा चलाते हुए पहले बुिढया से पूछाः "कयो,
माताजी ! चार सजजनो ने आपको अटै ची सँभालने के िलए दी थी?"
बुिढयाः "हाँ।"
रमणः "चारो सजजन िमलकर एक साथ अटै ची लेने आये तभी अटै ची लौटाने के िलए
कहा था?"
"हाँ।"अनुकम
रमण ने अब तीनो िमतो से कहाः "अरे , तब तो झगडे की कोई बात ही नहीं है ।
सदगहृसथो ! आपने ऐसा ही कहा था न िक जब हम चारो िमलकर आये तब हमे अटै ची लौटा
दे ना?"
डकैतः "हाँ, ठीक बात है । हमने इस माई से ऐसा ही तय िकया था।"
रमणः "ये माताजी तो अभी भी आपको अटै ची लौटाने को तैयार है , मगर आप ही अपनी
शतश को भंग कर रहे है ।"
"कैसे?"
"आप चार साथी िमलकर आओ तो अभी आपको आपकी अमानत िदलवा दे ता हूँ। आप
तो तीन ही है , चौथा कहाँ है ?"
"साहब ! वह तो.... वह तो....."
"उसे बुलाकर लाओ। जब चारो एक साथ आओगे तभी आपको अटै ची िमलेगी, नाहक मे
इन बेचारी माताजी को परे शान कर रहे हो।"
तीनो वयिक मुह
ँ लटकाये रवाना हो गये। सारी सभा दं ग रह गयी। सचचा नयाय करने
वाले पितभासंपनन बालक की युिकयुक चतुराई दे खकर राजा भी बडा पभािवत हुआ।
वही बालक रमण आगे चलकर महाराष का मुखय नयायधीश बना और मिरयाडा रमण के
नाम से सुिवखयात हुआ।
पितभा िवकिसत करने की कुंजी सीख लो। जरा सी बात मे िखनन न होना , मन को
सवसथ व शांत रखना, ऐसी पुसतके पढना जो संयम और सदाचार बढाये, परमातमा का धयान
करना और सतपुरषो का सतसंग करना – ये ऐसी कुंिजयाँ है िजनके दारा तुम भी पितभावान बन
सकते हो।अनुकम
ॐ
ितलकजी की सतयिनषा
बाल गंगाधर ितलकजी के बालयकाल की यह घटना है ः
एक बार वे घर पर अकेले ही बैठे थे िक अचानक उनहे चौपड खेलने की
इचछा हुई। िकंतु अकेले चौपड कैसे खेलते? अतः उनहोने घर के खंभे को
अपना साथी बनाया। वे दाये हाथ से खंभे के िलए और बाये हाथ से
अपने िलए खेलने लगे। इस पकार खेलते-खेलते वे दो बार हार गये।
दादी माँ दरू से यह सब नजारा दे ख रही थीं। हँ सते हुए वे बोलीः
"धत ् तेरे की... एक खंभे से हार गया?"
ितलकजीः "हार गया तो कया हुआ? मेरा दायाँ हाथ खंभे के हवाले था और मुझे दाये हाथ
से खेलने की आदत है । इसीिलए खंभा जीत गया, नहीं तो मै जीतता।"
कैसा अदभुत था ितलकजी का नयाय ! िजस हाथ से अचछे से खेल सकते थे उससे खंभे
के पक मे खेले और हारने पर सहजता से हार भी सवीकार कर ली। महापुरषो का बालयकाल भी
नैितक गुणो से भरपूर ही हुआ करता है ।
इसी पकार एक बार छः मािसक परीका मे ितलकजी ने पशपत के सभी पशो के सही
जवाब िलख डाले।
जब परीकाफल घोिषत हुआ तब िवदािथय
श ो को पोतसािहत करने के िलए भी बाँटे जा रहे
थे। जब ितलक जी की कका की बारी आयी तब पहले नंबर के िलए ितलकजी का नाम घोिषत
िकया गया। जयो ही अधयापक ितलकजी को बुलाकर इनाम दे ने लगे, तयो ही बालक ितलकजी
रोने लगे।
यह दे खकर सभी को बडा आशय श हुआ ! जब अधयापक ने ितलकजी से रोने का कारण
पूछा तो वे बोलेः
"अधयापक जी ! सच बात तो यह है िक सभी पशो के जवाब मैने नहीं िलखे है । आप
सारे पशो के सही जवाब िलखने के िलए मुझे इनाम दे रहे है , िकंतु एक पश का जवाब मैने
अपने िमत से पूछकर िलखा था। अतः इनाम का वासतिवक हकदार मै नहीं हूँ।"
अधयापक पसनन होकर ितलकजी को गले लगाकर बोलेः
"बेटा ! भले तुमहारा पहले नंबर के िलए इनाम पाने का हक नहीं बनता, िकंतु यह इनाम
अब तुमहे सचचाई के िलए दे ता हूँ।"
ऐसे सतयिनष, नयायिपय और ईमानदार बालक ही आगे चलकर महान कायश कर पाते है ।
पयारे िवदािथय
श ो ! तुम ही भावी भारत के भागय िवधाता हो। अतः अभी से अपने जीवन
मे सतयपालन, ईमानदारी, संयम, सदाचार, नयायिपयता आिद गुणो को अपना कर अपना जीवन
महान बनाओ। तुमहीं मे से कोई लोकमानय ितलक तो कोई सरदार वललभभाई पटे ल, कोई
िशवाजी तो कोई महाराणा पताप जैसा बन सकता है । तुमहीं मे से कोई धुव , पहाद, मीरा, मदालसा
का आदशश पुनः सथािपत कर सकता है ।
उठो, जागो और अपने इितहास-पिसद महापुरषो के जीवन से पेरणा लेकर अपने जीवन
को भी िदवय बनाने के माग श पर अगसर हो जाओ.... भगवतकृ पा और संत-महापुरषो के आशीवाद
श
तुमहारे साथ है ।अनुकम
ॐ
सारसवतय म ं त और बीरबल
11 वष श का बीरबल आगरा मे पान का गलला चलाता था। गलले मे
बैठकर सरौते से सुपारी काटता जाता और सारसवतय मंत का जप भी
करता जाता। पितिदन बैठकर िनयमपूवक
श 5 मालाएँ करता था, इसके
अलावा जब भी समय िमलता तब मानिसक जप िकया करता।
सारसवतय मंत के पभाव से उसकी बुिद भी खूब िवकिसत हो गयी थी।
एक िदन एक खोजा आया और उसने बीरबल से पूछाः "अरे भाई ! चूना िमलेगा? पावभर
लेना है ।"
बीरबल ने खोजा िक तरफ दे खा और थोडी दे र शांत हो गया। उसे खोजा की पूरी हकीकत
का पता चल गया कयोिक बीरबल ने तो अपने गुर से सारसवतय मंत ले रखा था। उसने खोजा
से पूछाः
"कया आप अकबर बादशाह के यहाँ पान लगाते है ?"
खोजाः "हाँ, हाँ...."
"आपने कल बादशाह को पान लगाकर िदया होगा और उसमे चूना जयादा लग गया होगा
िजसकी वजह से उनके मुँह मे छाले पड गये होगे। इसीिलए आज बादशाह ने आपके दारा
पावभर चूना मँगवाया है । अब तलवार और भाले वाले िसपािहयो के बीच घेरकर आपको यह
पावभर चूना खाने के िलए बाधय िकया जायेगा।"
"तौबा...! तौबा....! िफर तो मै मर जाऊँगा। कया करँ ? भाग जाऊँ या अपने-आपको खतम
कर दँ ू?"
"भाग जाने से काम नहीं बनेगा, पकडे जाओगे। मर जाने से भी काम नहीं चलेगा।
आतमहतया करने वाला तो कायर होता है , कायर। डरपोक मनुषय ही आतमहतया करता है ।
आतमहतया करना महापाप है ।"
आतमहतया के िवषय मे तो सोचना तक नहीं चािहए। जो आतमहतया करने का िवचार
करता है , उसे समझ लेना चािहए िक आतमहतया कायरता की पराकाषा है । आतमहतया िनराशा
की पराकाषा है । कभी कायर न बने, िनराश न हो। पयत करे , पुरषाथ श करे । हजार बार हार जाने
पर भी िनराश न हो। िफर से पयास करे । Try and try, you will succeed.
पतयेक िवघन-बाधारपी अँधेरी रात के पीछे सफलतारपी पभात आता ही है । पयत करते
रहने से एक बार नहीं तो दस
ू री बार, दस
ू री बार नहीं तो तीसरी बार.... माग श िमल ही जायेगा,
आपके िलए सफलता का दार जरर खुल जायेगा। उदोगी बने, पुरषाथी बने, िनभय
श रहे ।
बीरबलः "भागने से भी काम नहीं चलेगा और मर जाने से भी काम नहीं चलेगा।"
खोजाः "खुदा खैर करे , बंदा मौज करे ...."
"खुदा खैर तो बहुत करता है , िकंतु बंदा अपनी बुिद का उपयोग करे तब न?"
"तो अब कया करँ? तू ही बता। तू है तो छोटा-सा बचचा, िकंतु तेरी अकल जोरदार है !"
"खोजाजी ! पावभर चूना ले जाइये और दे शी घी भी ले जाइये। पावभर घी पीकर दरबार
मे जाना। यिद बादशाह पावभर चूना खाने को कहे गे तो भी िचनता न रहे गी। घी चूने को मारे गा
और चूना घी को मारे गा। आप जीिवत रह जायेगे।"
"ऐसा?"
"हाँ, ऐसा ही होगा। सुपारी बहुत कडक होती है इसिलए बूढे लोग ठीक से नहीं चबा
सकते। िकंतु यिद बादाम के साथ सुपारी को चबाया जाये तो सुपारी आसानी से चबायी जा
सकती है । उसी पकार घी पीकर जाओगे तो चूना घी को मारे गा और घी चूने को मारे गा। आप
बच जाओगे।"अनुकम
खोजा ने पावभर चूना िलया और दे शी घी पीकर पहुँच गया दरबार मे अकबर को पावभर
चूना िदया। अकबर कोिधत होते हुए कहने लगाः
"नालायक ! मूख श ! लापरवाही से काम करता है ? पान मे जयादा चूना डालने से कया होता
है , अब दे ख। यह पावभर चूना अभी मेरे सामने ही खा जा।"
खोजा के आस-पास तलवार और भाले लेकर िसपाही तैनात कर िदये गये, िजससे खोजा
भाग न पाये। खोजा िबना घबराये चूना खाने लगा। िजसे बीरबल जैसा सीख दे नेवाला िमल
गया हो, उसे भय िकसका? िचनता िकसकी? लोग जैसे मकखन खाते है , वैसे ही वह चूना खा गया
कयोिक वह दे शी घी पीकर आया था।
अकबरः "जा, नालायक ! अब घर जाकर मर।"
परं तु खोजा जानता था िक वह मरनेवाला नहीं है । दस
ू रे ही िदन खोजा िफर से दरबार मे
हािजर हो गया। अकबर आशयच
श िकत होकर उसे दे खता ही रह गया।
"अरे ! तू िजंदा कैसे रह गया? तेरे मुँह और पेट मे छाले नहीं पडे ? जरा मुँह खोलकर तो
िदखा।"
खोजा का मुह
ँ दे खकर अकबर दं ग रह गया। अरे ! इसको तो चूने की कोई असर ही नहीं
हुई ! उसने खोजा से पूछाः
"यह कैसे हुआ?"
खोजाः "जहाँपनाह ! जब मै चूना लेने के िलए पान के गलले पर पहुँचा, तब वह पानवाला
बीरबल आपके मन की बात जान गया। मुझे तो कुछ पता ही नहीं था। उसने ही मुझे कहा िक
'बादशाह तुझे यह चूना िखलायेगे।' मै तौबा.... तौबा.... पुकार उठा। उसने दया करके मुझे उपाय
बताया िक 'आप घी पीकर जाना। घी चूने को मारे गा, चूना घी को मारे गा और आप जीिवत रह
जाओगे।' इसीिलए जहाँपनाह ! मै घी पीकर ही दरबार मे आया था। पावभर चूना खाने के बावजूद
भी घी के कारण बच गया।"
अकबर िवचारने लगा िक 'मेरे मन की बात पान के गलले पर बैठने वाले 11 वषीय
बीरबल ने कैसे जान ली? घी चूने को मारता है और चूना घी को मारता है ऐसी अकल तो मेरे
पास भी नहीं है , िफर इस छोटे -से बालक मे कैसे आयी? जरर वह बालक होनहार और खूब
होिशयार होगा।'
अकबर ने अपने वजीर को हुकम िकयाः "जाओ, उस बालक को आदरसिहत पालकी मे
िबठाकर ले आओ।"
बीरबल को आदरपूवक
श पालकी मे िबठाकर राज-दरबार मे लाया गया। उससे कई पश पूछे
गये। अकबर ने पूछाः
"12 मे से एक जाय तो िकतने बचते है ?"
बीरबलः "मै जवाब दँ ू उससे पहले दस
ू रे वजीरो से पूछना है ?"
अकबरः "पहले दस
ू रे वजीर इसका जवाब दे ।"अनुकम
िकसी वजीर ने कहा '11' तो िकसी ने कहा '5 और 6' िकसी ने कहा '8 और 3' तो िकसी ने
कहा '7 और 4'।
बुिदमान बीरबल ने िवचार िकया िक 12 मे से एक जाये तो 11 बचते है । इस पश का
जवाब तो यही होगा, परं तु ऐसा सामानय पश बादशाह नहीं पूछ सकते। िफर भी यिद पूछ रहे है
तो जरर इसमे कोई रहसय होगा।
आिखर बीरबल ने िवचार कर कहाः
"12 मे से एक जाये तो शूनय बाकी बचता है ।"
सब वजीर बीरबल की ओर दे खने लगे। अकबर ने पूछाः "इसका अथश कया?"
"वष श मे 12 महीने होते है । उसमे से सावन का महीना बरसात के िबना ही िनकल जाय
तो अनाज उगेगा ही नहीं, इससे िकसान के तो बारह-के-बारह महीने गये।"
"शाबाश.....! शाबाश....!"
अकबर ने जो भी सवाल पूछे उन सबके बीरबल ने युिकयुक जवाब िदये। अकबर ने कहाः
"पान का गलला चलाने वाले ! तू तो मेरा वजीर बनने के योगय है ।"
उसी वक अकबर ने 11 वष श के छोटे -से बीरबल को अपना वजीर िनयुक कर िदया। िफर
तो जीवनभर बीरबल अकबर का िपय वजीर बना रहा।
सारसवतय मंत के जप और सतसंग का ही यह पभाव था, िजससे बीरबल इतनी ननहीं सी
उम मे ही चमक उठा।
बीरबल अपनी बुिदमता के कारण अकबर का िपयपात बन गया। इससे बहुत-से लोग
बीरबल से ईषयाश से जलने लगे। बीरबल को कई बार दरबार मे से िनकालने के पयत िकये गये ,
परं तु बीरबल इतना चतुर था िक हर बार षियंत से बच िनकलता। बीरबल को हटाने के िलए
िवरोधी अनेक पकार की युिक-पयुिकयाँ आजमाते, िकंतु िवजय हमेशा बीरबल की ही होती। िफर
भी दस
ू रे वजीर जब तब बादशाह के कान भरते रहते।
एक बार वजीरो ने कहाः "जहाँपनाह ! आपने बीरबल को िसर चढा रखा है । आज हम सब
िमलकर उसकी हँ सी उडायेगे।"
अकबर भी उनके साथ िमल गया। इतने मे ही बीरबल आया। उसे दे खकर अकबर और
सब वजीर हँ सने लगे, उसका मखौल उडाने लगे। बीरबल समझ गया िक बादशाह और मुझसे
ईषया श करने वाले वजीर जान-बूझकर मुझ पर हँ स रहे है । जहाँ सभी हँ स रहे है , वहाँ मै कयो
खामोश रहूँ? बीरबल भी पेट पकडकर हँ सने लगा। वह इतना हँ सा, इतना हँ सा िक उसे हँ सते
दे खकर सब वजीरो का मुह
ँ छोटा हो गया। वे िवचारने लगे िक हम िजस बीरबल की हँ सी उडा
रहे है , वह तो सवयं ही हँ स रहा है !
कोई हँ सकर आपको फीका िदखाना चाहे तो युिक आजमाकर अपने असली हासय से उस
फीकेपन को मधुरता मे बदल दे ना चािहए।अनुकम
अकबरः "बीरबल ! तुम कयो हँ से?"
बीरबलः "जहाँपनाह ! आप कयो हँ से? पहले आप बताये।"
"मैने तो राित मे एक सवपन दे खा था।"
"कया सवपन दे खा?"
"सवपन मे हम दोनो याता कर रहे थे। बहुत गमी पड गयी थी, इसिलए हम दोनो ने
सनान िकया। जंगल मे दो कुंड थे। एक था दध
ू -मलाई का कुंड और दस
ू रा था गटर के पानी का
कुंड। मैने दध
ू -मलाईवाले कुंड मे डु बकी मारी और तुमने गटर के पानी पीने वाले कुंड मे। तू भी
नहाया और मै भी। मै तो दध
ू मे नहाया और तू गटर के गंदे पानी मे। अभी उसे याद करके ही
हँ स रहा था।"
"मै भी इसीिलए हँ स रहा था िक आपका सवपन और मेरा सवपन एक ही है । हम दोनो कुंड
मे तो िगर गये थे, परं तु नहाने के उदे शय से न िनकलने के कारण साथ मे तौिलया नहीं ले गये
थे। गमी लगी इसिलए नहाये। जब हम बाहर िनकले, तब आपने मुझे चाटा और मैने आपको।
मुझे दध
ू -मलाई चाटने को िमली और आपको गटर का मसाला ! इसिलए मुझे हँ सी आ रही है ।"
"तौबा.... तौबा... यह कया कर रहे हो?"
"मैने जो सवपन दे खा वही कह रहा हूँ। आपका सवपन तो बीच मे ही टू ट गया, परं तु मैने
यह आगे का भी दे खा।"
बीरबर भगवद भजन, महापुरषो के सतसंग, शास-अधययन और सारसवतय मंत के पभाव
से इतना बुिदमान बन गया िक अकबर जैसा समाट भी उसकी बुिद के आगे हार मान लेता था।
जब तक बीरबल जीिवत रहा, तब तक अकबर का जीवन आनंद, उललास और उतसाह से
पिरपूणश रहा। बीरबल का दे हावसान होने पर अकबर बोल उठाः
"आज तक मै एक मदश के साथ जीता था। अब मुझे िहजडो के साथ जीना पडे गा। हे
खुदाताला ! अब मेरे जीवन का रस चला गया। बीरबल जैसा रसीला वयिक मुझे एक ही िमला।
दस
ू रा कोई वजीर उसके जैसा नहीं है ।"
अकबर ने बीरबल के संग मे रहकर कई ऐसी बाते जानीं, िजसे सामानय राजा नहीं जान
पाते। बीरबल ने भी यह सब बाते परम सता की कृ पा से वहाँ जानीं, जहाँ से सब ऋिष जानते है ।
यिद बालयावसथा से ही मानव को िकसी बहिनष सदगुर का सािननधय िमल जाये , सतसंग
िमल जाय, सारसवतय मंत िमल जाये और वह गुर के मागद
श शन
श के अनुसार धयान-भजन करे ,
मंतजप करे तो उसके िलए महान बनना सरल हो जाता है । वह िजस केत मे चाहे , उस केत मे
पगित कर सकता है । आधयाितमक माग श मे भी वह खूब उननित कर सकता है और ऐिहक
उननित तो आधयाितमक उननित के पीछे -पीछे सवयं ही चली आती है ।अनुकम
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दीघा श यु का रहसय
चीन के पेिकंग (बीिजंग) शहर के एक 250 वषीय वद
ृ से पूछा गयाः "आपकी इतनी दीघाय
श ु
का रहसय कया है ?"
उस चीनी वद
ृ ने जो उतर िदया, वह सभी के िलए लाभदायक व उपयोगी है । उसने कहाः
"मेरे जीवन मे तीन बाते है िजनकी वजह से मै इतनी लमबी आयु पा सका हूँ।
एक तो यह है िक मै कभी उतेजना के िवचार नहीं करता तथा िदमाग मे उतेजनातमक
िवचार नहीं भरता हूँ। मेरे िदल-िदमाग शांत रहे , ऐसे ही िवचारो को पोषण दे ता हूँ।
दस
ू री बात यह है िक मै उतेिजत करनेवाला, आलसय को बढानेवाला भोजय पदाथ श नहीं
लेता और ही अनावशयक भोजन लेता हूँ। मै सवाद के िलए नहीं, सवासथय के िलए भोजन करता
हूँ।
तीसरी बात यह है िक मै गहरा शास लेता हूँ। नािभ तक शास भर जाये इतना शास
लेता हूँ और िफर छोडता हूँ। अधूरा शास नहीं लेता।"
लाखो-करोडो लोग इस रहसय को नहीं जानते। वे पूरा शास नहीं लेते। पूरा शास लेने से
फेफडो का और दस
ू रे अवयवो का अचछी तरह से उपयोग होता है तथा शास की गित कम होती
है । जो लोग जलदी-जलदी शास लेते है वे एक िमनट मे 14-15 शास गँवा दे ते है । जो लोग लमबे
शास लेते है वे एक िमनट मे 10-12 शास ही खचश करते है । इससे आयुषय की बचत होती है ।
काय श करते समय एक िमनट मे 12-13 शास खच श होते है । दौडते समय या चलते-चलते
बात करते समय एक िमनट मे 18-20 शास खचश होते है । कोध करते समय एक िमनट मे 24 से
28 वष श शास खच श हो जाते है और काम-भोग के समय एक िमनट मे 32 से 36 शास खच श जाते
है । जो अिधक िवकारी है उनके शास जयादा खतम होते है , उनकी नस-नािडयाँ जलदी कमजोर हो
जाती है । हर मनुषय का जीवनकाल उसके शासो के मुतािबक कम-अिधक होता है । कम शास
(पारबध) लेकर आया हो तो भी िनिवक
श ारी होगा तो जयादा जी लेगा। भले कोई अिधक शास लेकर
आया हो लेिकन अिधक िवकारी जीवन जीने से वह उतना नहीं जी सकता िजतना पारबध से जी
सकता था।
जब आदमी शांत होता है तो उसके शरीर से जो आभा िनकलती है वह बहुत शांित से
िनकलती है और जब आदमी उतेजातमक भावो मे, िवचारो मे आता है या कोध के समय काँपता
है , उस वक उसके रोमकूप से अिधक आभा िनकलती है । यही कारण है िक कोधी आदमी जलदी
थक जाता है जबिक शांत आदमी जलदी नहीं थकता।
शांत होने का मतलब यह नहीं िक आलसी होकर बैठे रहे । अगर आलसी होकर बैठे रहे गे
तो शरीर के पुजे बेकार हो जायेगे, िशिथल हो जायेगे, बीमार हो जायेगे। उनहे ठीक करने के िलए
िफर शास जयादा खचश होगे।
अित पिरशम न करे और अित आरामिपय न बने। अित खाये नहीं और अित भुखमरी न
करे । अित सोये नहीं और अित जागे नहीं। अित संगह न करे और अित अभावगसत न बने।
भगवान शीकृ षण ने गीता मे कहा है ः युकाहा रिव हारस य.....
डॉ. फेडिरक कई संसथाओं के अगणी थे। उनहोने 84 वषीय एक वद
ृ सजजन को सतत
कमश
श ील रहते हुए दे खकर पूछाः "एक तो 84 वष श की उम, नौकरी से सेवािनवत
ृ , िफर भी इतने
सारे काय श और इतनी भाग-दौड आप कैसे कर लेते है ? गह-नकत की जाँच-परख मे आप मेरा
इतना साथ दे रहे है ! कया आपको थकान या कमजोरी महसूस नहीं होती? कया आपको कोई
बीमारी नहीं है ?"
जवाब मे उस वद
ृ ने कहाः "आप अकेले ही नहीं, और भी पिरिचत डॉकटरो को बुलाकर
मेरी तनदर
ु सती की जाँच करवा ले, मुझे कोई बीमारी नहीं है ।"अनुकम
कई डॉकटरो ने िमलकर उस वद
ृ की जाँच की और दे खा िक उस वद
ृ के शरीर मे बुढापे
के लकण तो पकट हो रहे थे लेिकन िफर भी वह वद
ृ पसननिचत था। इसका कया कारण हो
सकता है ?
जब डॉकटरो ने इस बात की खोज की तब पता चला िक वह वद
ृ दढ मनोबल वाला है ।
शरीर मे बीमारी के िकतने ही कीटाणु पनप रहे है लेिकन दढ मनोबल, पसननिचत सवभाव और
िनरं तर िकयाशील रहने के कारण रोग के कीटाणु उतपनन होकर नि भी हो जाते है । वे रोग
इनके मन पर कोई पभाव नहीं डाल पाते।"
आलसय शैतान का घर है । आलसय से बढकर मानव का दस
ू रा कोई शतु नहीं है । जो
सतत पयतशील और उदमशील रहता है , सफलता उसका वरण करती है । कहा भी गया है ः
उदम ेन िह िसदय िनत काया श िण न मनोरथ ै ः।
न िह स ुपसय िसंहसय पिव शिनत म ुख े म ृ गाः।।
'उदमशील के ही काय श िसद होते है , आलसी के नहीं। कभी भी सोये हुए िसंह के मुख मे
मग
ृ सवयं पवेश नहीं करते।'
अतः हे िवदािथय
श ो ! उदमी बनो। साहसी बनो। अपना समय बरबाद मत करो। जो समय
को बरबाद करते है , समय उनहे बरबाद कर दे ता है । समय को ऊँचे और शष
े कायो मे लगान से
समय का सदप
ु योग होता है तथा तुमहे भी लाभ होता है । जैसे, कोई वयिक चपरासी के पद पर
हो तो 8 घंटे के समय का सदप
ु योग करे , िजलाधीश के पद पर हो तो भी उतना ही करे तथा
राषपित के पद पर हो तो भी उतना ही करे , िफर भी लाभ अलग-अलग होता है । अतः समय का
सदप
ु योग िजतने ऊँचे कायो मे करोगे, उतना ही लाभ जयादा होगा और ऊँचे-मे-ऊँचे कायश
परमातमा की पािप मे समय लगाओगे तो तुम सवयं परमातमरप होने का सवोचच लाभ भी पाप
कर सकोगे।
उठो... जागो... कमर कसो। शष
े िवचार, शष
े आहार-िवहार और शास की गित के िनयंतण
की युिक को जानो और दढ मनोबल रखकर, सतत कमश
श ील रहकर दीघाय
श ु बनो। अपने समय को
शष
े कायो मे लगाओ। िफर तुमहारे िलए महान बनना उतना ही सहज हो जायेगा, िजतना
सूयोदय होने पर सूरजमुखी का िखलना सहज होता है ।अनुकम
ॐ शांित.... ॐ िहममत.... ॐ साहस ..... ॐ बल.... ॐ दढता.... ॐ....ॐ....ॐ....
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
सफलता क ैस े पाय े ?
िकसी ने कहा है ः
अगर तुम ठान लो , तार े गगन क े तोड स कते हो।
अगर त ुम ठान लो , तूफान का म ुख मोड सकत े हो।।
यह कहने का तातपय श यही है िक जीवन मे ऐसा कोई काय श नहीं िजसे मानव न कर
सके। जीवन मे ऐसी कोई समसया नहीं िजसका समाधान न हो।
जीवन मे संयम, सदाचार, पेम, सिहषणुता, िनभय
श ता, पिवतता, दढ आतमिवशास और उतम
संग हो तो िवदाथी के िलए अपना लकय पाप करना आसान हो जाता है ।
यिद िवदाथी बौिदक-िवकास के कुछ पयोगो को समझ ले, जैसे िक सूय श को अघय श दे ना,
भामरी पाणायाम करना, तुलसी के पतो का सेवन करना, ताटक करना, सारसवतय मंत का जप
करना आिद तो उनके िलए परीका मे अचछे अंको से उतीणश होना आसान हो जायेगा।
िवदाथी को चािहए िक रोज सुबह सूयोदय से पहले उठकर सबसे पहले अपने इि का, गुर
का समरण करे । िफर सनानािद करके अपने पूजाकक मे बैठकर गुरमंत, इिमंत अथवा सारसवतय
मंत का जाप करे । अपने गुर या इि की मूित श की ओर एकटक िनहारते हुए ताटक करे । अपने
शासोचछवास की गित पर धयान दे ते हुए मन को एकाग करे । भामरी पाणायाम करे जो 'िवदाथी
सवाग
ा ीण उतथान िशिवर' मे िसखाया जाता है ।
पितिदन सूयश को अघयश दे और तुलसी के 5-7 पतो को चबाकर 2-4 घूँट पानी िपये।
रात को दे र तक न पढे वरन ् सुबह जलदी उठकर उपयुक
श िनयमो को करके अधययन करे
तो इससे पढा हुआ शीघ याद हो जाता है ।
जब परीका दे ने जाये तो तनाव-िचनता से युक होकर नहीं वरन ् इि-गुर का समरण करके,
पसनन होकर जाय।
परीका भवन मे भी जब तक पशपत हाथ मे नहीं आता तब तक शांत तथा सवसथ िचत
होकर पसननता को बनाये रखे।
पशपत हाथ मे आने पर उसे एक बार पूरा पढ लेना चािहए और िजस पश का उतर
आता है उसे पहले िलखे। ऐसा नहीं िक जो नहीं आता उसे दे खकर घबरा जाये। घबराने से जो
पश आता है वह भी भूल जायेगा।
जो पश आते है उनहे हल करने के बाद जो नहीं आते उनकी ओर धयान दे । अंदर दढ
िवशास रखे िक मुझे ये भी आ जायेगे। अंदर से िनभय
श रहे और भगवतसमरण करके एकाध
िमनट शांत हो जाय, िफर िलखना शुर करे । धीरे -धीरे उन पशो के उतर भी िमल जायेगे।
मुखय बात यह है िक िकसी भी कीमत पर धैयश न खोये। िनभय
श ता तथा दढ आतमिवशास
बनाये रखे।
िवदािथय
श ो को अपने जीवन को सदै व बुरे संग से बचाना चािहए। न तो वह सवयं धूमपान
आिद करे न ही ऐसे िमतो का संग करे । वयसनो से मनुषय की समरणशिक पर बडा खराब पभाव
पडता है ।अनुकम
वयसन की तरह चलिचत भी िवदाथी की जीवनशिक को कीण कर दे ते है । आँखो की
रोशनी को कम करने के साथ ही मन और िदमाग को भी कुपभािवत करने वाले चलिचतो से
िवदािथय
श ो को सदै व सावधान रहना चािहए। आँखो के दारा बुरे दशय अंदर घुस जाते है और वे
मन को भी कुपथ पर ले जाते है । इसकी अपेका तो सतसंग मे जाना, सतशासो का अधययन
करना अनंतगुना िहतकारी है ।
यिद िवदाथी ने अपना िवदाथी-जीवन सँभाल िलया तो उसका भावी जीवन भी सँभल
जाता है , कयोिक िवदाथी-जीवन ही भावी जीवन की आधारिशला है । िवदाथीकाल मे वह िजतना
संयमी, सदाचारी, िनभय
श और सिहषणु होगा, बुरे संग तथा वयसनो को तयागकर सतसंग का आशय
लेगा, पाणायाम-आसनािद को सुचार रप से करे गा उतना ही उसका जीवन समुननत होगा। यिद
नींव सुदढ होती है तो उस पर बना िवशाल भवन भी दढ और सथायी होता है । िवदाथीकाल
मानवजीवन की नींव के समान है , अतः उसको सुदढ बनाना चािहए।
इन बातो को समझकर उन पर अमल िकया जाये तो केवल लौिकक िशका मे ही
सफलता पाप होगी ऐसी बात नहीं है वरन ् जीवन की हर परीका मे िवदाथी सफल हो सकता है ।
हे िवदािथय
श ो ! उठो... जागो... कमर कसो। दढता और िनभय
श ता से जुट पडो। बुरे संग तथा
वयसनो को तयागकर, संतो-सदगुरओं के मागद
श शन
श के अनुसार चल पडो... सफलता तुमहारे चरण
चूमेगी।
धनय है वे लोग िजनमे ये छः गुण है ! अंतयाम
श ी दे व सदै व उनकी सहायता करते है -
उदम ः साहस ं ध ैय ा बु िद श िकः पराकम ः।
षडेत े यत व तश नते त त द ेवः स हायकृत।।
'उदोग, साहस, धैयश, बुिद, शिक और पराकम – ये छः गुण िजस वयिक के जीवन मे है , दे व
उसकी सहायता करते है ।'अनुकम
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िवदािथ श यो स े दो बात े
जबसे भारत के िवदाथी 'गीता', 'गुरवाणी', 'रामायण' की मिहमा भूल गये, तबसे वे पाशातय
संसकृ ित के अंधानुकरण के िशकार बन गये। नहीं तो िवदे श के िवशिवखयात िवदानो को भी
चिकत कर दे – ऐसा सामथयश भारत के ननहे -मुनहे बचचो मे था।
आज का िवदाथी कल का नागिरक है । िवदाथी जैसा िवचार करता है , दे र सवेर वैसा ही
बन जाता है । जो िवदाथी परीका दे ते समय सोचता है िक 'मै पशो को हल नहीं कर पाऊँगा... मै
पास नहीं हो पाऊँगा.... ' वह अनुतीण हो जाता और जो सोचता है िक मै सारे पशो को हल कर
लूँगा..... मै पास हो जाऊँगा....' वह पास भी हो जाता है ।
िवदाथी के अंदर िकतनी अदभुत शिकयाँ िछपी हुई है , इसका उसे पता नहीं है । जररत तो
है उन शिकयो को जगाने की। िवदाथी को कभी िनबल
श िवचार नहीं करना चािहए।
वह कौन -सा उ कदा ह ै जो हो नह ीं सकता ? तेरा जी न चाह े तो हो नही ं स कता।
छोटा -सा कीडा पतथर म े घर कर े , इन सान कया िदल े -िदलबर म े घर न कर े ?
हे भारत के िवदािथय
श ो !
अपने जीवन मे हजार-हजार िवघन आये, हजार बाधाएँ आ जाये लेिकन एक उतम लकय
बनाकर चलते जाओ। दे र सवेर तुमहारे लकय की िसिद होकर ही रहे गी। िवघन और बाधाएँ
तुमहारी सुषुप चेतना को, सुषुप शिकयो को जागत
ृ करने के शुभ अवसर है ।अनुकम
कभी भी अपने आप को कोसो मत। हमेशा सफलता के िवचार करो, पसननता के िवचार
करो, आरोगयता के िवचार करो। दढ एव ं प ुरषा थी बनो और भारत क े श े ष नागिर क बनकर
भारत की शान बढाओ। ईशर एव ं ई शरपा प महाप ुर षो के आ शीवा श द त ुमहार े साथ ह ै ...
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